मायूसी-ए-निगाह का क़ाइल नहीं रहा या'नी तुम्हारी राह का क़ाइल नहीं रहा जब मैं गुनाह-ए-इश्क़ का पाबंद हो गया तब से किसी गुनाह का क़ाइल नहीं रहा तर्क-ए-तअल्लुक़ात का अफ़्सोस है मगर तजदीद-ए-रस्म-ओ-राह का क़ाइल नहीं रहा जिस में सिवाए वा'दा-ए-फ़र्दा के कुछ न हो ऐसी किसी निगाह का क़ाइल नहीं रहा लब-हा-ए-सुब्ह-ओ-शाम सदा मुस्कुराएँगे मैं ज़िंदगी में आह का क़ाइल नहीं रहा