मज़े लूँ दर्द के मैं थोड़े थोड़े ज़ुल्म सह-सह कर सितम कीजे तो थम थम कर जफ़ा कीजे तो रह-रह कर मिले थे आज मुद्दत में बहुत रोए बहुत तड़पे वो दर्द-ए-इश्क़ सुन सुन कर हम अपना दर्द कह-कह कर हुई है शम-ए-महफ़िल तो शरीक-ए-गिर्या-ए-आशिक़ तुझे ऐ क़ुलक़ुल-ए-मीना कहा था किस ने क़ह-क़ह कर छुपाया ज़ुल्फ़ ने चेहरा तो शोख़ी ने किया ज़ाहिर हज़ारों बार निकला वस्ल की शब चाँद गह-गह कर तड़पने में मज़ा आता है उस कम-बख़्त के हम को अगर दिल यास से बैठा उभारा हम ने कह-कह कर ये जाना था न आएँगे तो क्यों जाने दिया उन को यही ऐ 'दाग़' पछतावा मुझे आता है रह-रह कर