माज़ी का तजस्सुस है न फ़र्दा की ख़बर है इक लम्हा-ए-मौजूद है और अपना सफ़र है क़ाबू में हैं आ'साब न जज़्बात न अन्फ़ास बिखरी हुई हर चीज़ है फैला हुआ घर है हर साबित-ओ-सय्यार की इक हद है मुक़र्रर अफ़्लाक की वुसअ'त में भी दीवारें हैं दर है क्या लम्हा-ए-तश्कीक कोई ज़ेहन में उतरा क्या बात है क्यों फ़िक्र मिरी ज़ेर-ओ-ज़बर है आईना-गरी सीख तो ली शहर में सब ने क्या आइना-औसाफ़ कोई आईना-गर है मरबूत है तहज़ीब-ए-कुहन से मिरा रिश्ता लहजे में बुज़ुर्गों की दुआओं का असर है कुछ इतना बढ़ा बोझ सुबुक हो गया शाना ये इश्क़ भी ऐ 'राज़' अजब बार-ए-दिगर है