शम्अ' साँ शब के मेहमाँ हैं हम सुब्ह होते तो फिर कहाँ हैं हम तुम बिन ऐ रफ़्तगान-ए-मुल्क-ए-अदम हस्ती अपनी से सरगिराँ हैं हम बाग़बाँ टुक तो बैठने दे कहीं आह गुम-कर्दा आशियाँ हैं हम देखते हैं उसी को अहल-ए-नज़र गो निहाँ है वो और अयाँ हैं हम न किसी की सुनें न अपनी कहें नक़्श-ए-दीवार-ए-बोस्ताँ हैं हम जिंस-ए-आसूदगी नहीं हम पास दर्द और ग़म के कारवाँ हैं हम दिल से नाला निकल नहीं सकता याँ तलक ग़म से ना-तवाँ हैं हम क्या कहें हम 'हसन' ब-क़ौल 'ज़िया' जिस तरह से कि अब यहाँ हैं हम दाग़ हैं कारवान-ए-रफ़्ता के नक़्श-ए-पा-ए-गुज़िश्तगाँ हैं हम