ग़ज़ल 'मीर' की कब पढ़ाई नहीं कि हालत मुझे ग़श की आई नहीं ज़बाँ से हमारी है सय्याद ख़ुश हमें अब उम्मीद-ए-रिहाई नहीं किताबत गई कब कि उस शोख़ ने बना उस की गड्डी उड़ाई नहीं नसीम आई मेरे क़फ़स में अबस गुलिस्ताँ से दो फूल लाई नहीं मिरी दिल-लगी उस के रू से ही है गुल-ए-तर से कुछ आश्नाई नहीं नविश्ते की ख़ूबी लिखी कब गई किताबत भी एक अब तक आई नहीं जुदा रहते बरसों हुए क्यूँकि ये किनाया नहीं बे-अदाई नहीं गिला हिज्र का सुन के कहने लगा हमारे तुम्हारे जुदाई नहीं सियह-तालई मेरी ज़ाहिर है अब नहीं शब कि उस से लड़ाई नहीं