मेहर-ओ-माह भी लर्ज़ां हैं फ़ज़ा की बाँहों में अहल-ए-दिल ख़िरामाँ हैं कैसी शाह-राहों में बे-कसी बरसती है ज़िंदगी के चेहरे से काएनात की साँसें ढल रही हैं आहों में ज़ब्त-ए-ग़म की ताकीदें थीं सो ख़ैर थीं लेकिन कुछ तलाफ़ियाँ भी थीं रात उन निगाहों में हम तुझे भुला कर भी क्या सुकून पाएँगे ज़िंदगी तो है तेरे दर्द की पनाहों में दश्त-ए-दिल में अब तेरी याद यूँ भटकती है जैसे कोई दीवाना शब को शाह-राहों में मुद्दतें हुईं उस ने आँख भर के देखा था फिर रही हैं वो आँखें आज तक निगाहों में