मेलों में फैलते गए पौदे कपास के मुहताज कितने लोग हैं फिर भी लिबास के क्या क्या न डूबते रहे औरों की ज़ात में क्या क्या मुज़ाहिरे न किए हम ने प्यास के हर आदमी को रंग से है इन दिनों ग़रज़ क़िस्से पुराने हो गए फूलों की बास के 'ख़ावर' कहीं हवा का न है धूप का गुज़र ऊँचे हैं सब मकान मिरे आस पास के