मेरे हम-राह मिरे घर पे भी आफ़त आई आसमाँ टूट पड़ा बर्क़ गिरी छत आई शर्म आई भी जो उस शोख़ की आँखों में कभी शोख़ियाँ करती हुई साथ शरारत आई हिज्र में जान है दूभर ये लिखा था उन को ख़त में लिक्खी हुई मरने की इजाज़त आई सोचता जाता हूँ रस्ते में कि ये दूँगा जवाब गुफ़्तुगू उन से अगर ग़ैर की बाबत आई फिर हर इक शेर में कुछ दर्द का पाता हूँ असर फिर कहीं हज़रत-ए-'बेख़ुद' की तबीअत आई