मेरे हिस्से में बे-दिली आई मौत आई न ज़िंदगी आई कोई मंज़र खुला न आँखों में जो भी रुत आई शबनमी आई लहर सी दूर तक उठी दिल में आज फिर याद आप की आई कोई लम्हा चमक उठा शायद वर्ना आँखों में क्यूँ नमी आई आइना देखा देख कर रोया ख़ुद को सोचा तो फिर हँसी आई अब तो हर शहर शहर-ए-मक़्तल है जो हुआ आई चीख़ती आई आगही कर गई बहुत गुमराह काम आई तो आशिक़ी आई शब बुलाती है वहशतों को 'शमीम' क्या क़यामत की चाँदनी आई