मेरे ज़र्रे के मुक़द्दर में है सहरा होना इक न इक रोज़ है मुझ को भी हुवैदा होना शायद इस वास्ते पहचान तिरी मुश्किल है इतना आसान नहीं ख़ुद से शनासा होना इतना बीना हूँ कि गुलशन की हवा-ख़्वाही में देख सकता नहीं शाख़ों का बरहना होना देख इस दौर में आलाम-ओ-मसाइब के हुजूम देख इस दौर में इंसान का तन्हा होना कितना आसान है सर काटते फिरना 'बेदी' कितना मुश्किल है ज़माने का मसीहा होना