मेरी फ़िक्रों में रचा दिल के क़रीं लगता है वो तो पहले से कहीं और हसीं लगता है गरचे इक भीड़ है हर सम्त हर इक कूचे में मुझ को हर शख़्स मगर गोशा-नशीं लगता है अपना सरमाया यही टूटते लम्हों की थकन दिल मगर है कि जवाहर का अमीं लगता है तुम ने देखा नहीं होगा कोई मंज़र ऐसा हर फ़लक आज हमें ज़ेर-ए-ज़मीं लगता है एक हम थे कि चले आए सर-ए-मंज़िल-ए-इश्क़ और जो शख़्स जहाँ था वो वहीं लगता है उस की तहरीर नहीं सिल्क-ए-गुहर है 'जावेद' उस का हर क़ौल कि ख़ातम का नगीं लगता है