मेरी ख़िज़ाँ तो सब्ज़ हुई इस ख़ुमार में आने का उस ने वा'दा किया है बहार में रक्खी हुई है लाज मिरी मेरे इश्क़ ने वर्ना तो क्या रखा हुआ है इंतिज़ार में घर भी मुझे तो दश्त सा लगता है तेरे बिन लगता नहीं है दिल मिरा उजड़े दयार में अब जो सुलूक तू करे ये ज़र्फ़ है तिरा मैं आ गई हूँ आज तिरे इख़्तियार में रौशन न हो सकी कभी ये शाम-ए-ग़म मिरी मैं ने जलाए दीप कई ए'तिबार में मेरी वफ़ा के ज़िक्र पे उस की वो ख़ामुशी सारे जवाब मिल गए इस इख़्तिसार में देखी तो होगी राह मिरी उस ने भी कभी आया भी होगा अश्क मिरे चश्म-ए-यार में देखा है मैं ने मो'जिज़ा 'दिलशाद' ऐसा भी हँसने से उस के गुल खिले हैं कुंज-ए-ख़ार में