मेरी ख़िज़ाँ है रंग-ए-बहाराँ लिए हुए कुंज-ए-क़फ़स है अक्स-ए-गुलिस्ताँ लिए हुए अमवाज का सुकूत है तूफ़ाँ लिए हुए हर रहगुज़र है हश्र का सामाँ लिए हुए जलवों की काएनात ज़रा मुंतशिर तो कर मेरी नज़र है दीद का अरमाँ लिए हुए फैली हुई है मस्ती-ए-दाम-ए-बहार-ए-नौ हर इक रविश है कैफ़ का सामाँ लिए हुए तब्दील हो के रह गई तस्वीर-ए-काएनात अब अहरमन है अज़्मत-ए-यज़्दाँ लिए हुए तख़्लीक़-ए-हक़ को आज भी जिस पर ग़ुरूर है वो अज़्मत-ए-बुलंद है इंसाँ लिए हुए दाग़ों का इक चमन मिरे सीने में बंद है फिरता हूँ अपने साथ गुलिस्ताँ लिए हुए ज़द पर है इंक़लाब के शीराज़ा-ए-हयात हर दास्ताँ है दर्द का उनवाँ लिए हुए 'मुश्ताक़' वो नहीं हैं ज़माने में कामयाब बैठे हैं जो नसीब का दामाँ लिए हुए