मेरी महदूद बसारत का नतीजा निकला आसमाँ मेरे तसव्वुर से भी हल्का निकला रोज़-ए-अव्वल से है फ़ितरत का रक़ीब आदम-ज़ाद धूप निकली तो मिरे जिस्म से साया निकला सर-ए-दरिया था चराग़ाँ कि अजल रक़्स में थी बुलबुला जब कोई टूटा तो शरारा निकला बात जब थी कि सर-ए-शाम फ़रोज़ाँ होता रात जब ख़त्म हुई सुब्ह का तारा निकला मुद्दतों बा'द जो रोया हूँ तो ये सोचता हूँ आज तो सीना-ए-सहरा से भी दरिया निकला कुछ न था कुछ भी न था जब मिरे आसार खुदे एक दिल था सो कई जगह से टूटा निकला लोग शहपारा-ए-यक-जाई जिसे समझे थे अपनी ख़ल्वत से जो निकला तो बिखरता निकला मेरा ईसार मिरे ज़ो'म में बे-अज्र न था और मैं अपनी अदालत में भी झूटा निकला मैं तो समझा था बहुत सर्द है ज़ाहिद का मिज़ाज उस के अंदर तो क़यामत का तमाशा निकला वही बे-अंत ख़ला है वही बे-सम्त सफ़र मेरा घर मेरे लिए आलम-ए-बाला निकला ज़िंदगी रेत के ज़र्रात की गिनती थी 'नदीम' क्या सितम है कि अदम भी वही सहरा निकला