गुल भी ख़ुश-तलअ'त है पर ऐ माह तू कुछ और है बास उस में और कुछ है तुझ में बू कुछ और है कहने सुनने का नहीं ये वक़्त जा वाइ'ज़ कहीं आलम-ए-मस्ती में अपनी गुफ़्तुगू कुछ और है हूर-ओ-ग़िल्माँ की हवस काफ़िर हो जिस को टुक भी हो आशिक़ों के दिल की ज़ाहिद आरज़ू कुछ और है टोकता तो मैं नहीं पर इन दिनों नाम-ए-ख़ुदा ख़ूब चमके हो तुम्हारा रंग-ए-रू कुछ और है तश्त-ओ-ख़ंजर गर्दन-ओ-सर जम्अ' हैं मत देर कर क़स्द गर दिल में तिरे ऐ जंग-जू कुछ और है