मिल जाए कोई घर जो तिरे घर के आस-पास दरबान की तरह मैं रहूँ दर के आस-पास चारों तरफ़ हुजूम ये क्यों हैरतों का है क्या आइने लगे हैं तिरे घर के आस-पास यूँ मुर्ग़-ए-दिल है आतिश-ए-फ़ुर्क़त के दरमियान रहती है आग जैसे समुंदर के आस-पास हम मस्त माँगते हैं दुआ ये उठा के हाथ बैठें मुदाम शीशा-ओ-साग़र के आस-पास ज़ेबा है मुँह जो हल्क़ा-ए-ज़ुल्फ़-ए-सियह में हो हाला ज़रूर है मह-ए-अनवर के आस-पास 'शैदा' जो उन को घेरे हैं अग़्यार रात दिन काँटों के भी हैं ढेर गुल-ए-तर के आस-पास