मिला न दैर-ओ-हरम में कहीं निशाँ उन का हद-ए-निगाह से बाहर है आस्ताँ उन का निगाह मिलते ही हम दिल पकड़ के बैठ गए लगा जो तीर-ए-नज़र आ के ना-गहाँ उन का किए हैं राह-ए-वफ़ा में वहीं वहीं सज्दे मिला है नक़्श-ए-कफ़-ए-पा जहाँ जहाँ उन का हटे न राह-ए-वफ़ा से वफ़ा के दीवाने हज़ार बार लिया तुम ने इम्तिहाँ उन का बसे हुए हैं वो ऐसे मिरी निगाहों में कभी कभी मुझे ख़ुद पर हुआ गुमाँ उन का जिन्हों ने जोश-ए-वफ़ा में बिगाड़ ली हस्ती ज़माना आज भी लेता है इम्तिहाँ उन का हज़ार दैर-ओ-हरम सद्द-ए-राह हुए ऐ 'सैफ़' तलाश कर ही लिया दिल ने आस्ताँ उन का