मिली हवाओं में उड़ने की वो सज़ा यारो कि मैं ज़मीन के रिश्तों से कट गया यारो वो बे-ख़याल मुसाफ़िर में रास्ता यारो कहाँ था बस में मिरे उस को रोकना यारो मिरे क़लम पे ज़माने की गर्द ऐसी थी कि अपने बारे में कुछ भी न लिख सका यारो तमाम शहर ही जिस की तलाश में गुम था मैं उस के घर का पता किस से पूछता यारो जो बे-शुमार दिलों की नज़र में रहता था वो अपने बच्चों को इक घर न दे सका यारो जनाब-ए-'मीर' की ख़ुद-ग़र्ज़ियों के सदक़े में मियाँ 'वसीम' के कहने को क्या बचा यारो