मिलते नहीं हो हम से ये क्या हुआ वतीरा मिलने लगा है शायद अब तुम से कोई ख़ीरा आँखों ही में उड़ाया नक़द-ए-दिल-ओ-जिगर को वो शोख़ दिल-रुबा है कैसा अठाई-गीरा उल्फ़त का जुर्म बे-शक सरज़द हुआ है हम से इस को सग़ीरा समझो चाहे इसे कबीरा मैदान-ए-हश्र तेरा कूचा बना है क़ातिल जाता है अब जो कोई आता है क़शअरीरा गिरवीदा कर लिया है नैरंगी-ए-नज़र ने कैसी हुई फ़ुसूँ-गर वो शोख़ चश्म-गीरा उस शोख़ दिल-रुबा पर क्यूँकर न हों फ़िदा हम सज-धज हुई निराली बाँधा जो उस ने चीरा मिन्नत-पज़ीर उस के आख़िर को हो गए हम जो मुद्दआ' था अपना उस ने किया पज़ीरा शाग़िल जो हो गए हैं महमूद आक़िबत हैं सुल्ताना शग़्ल-ए-शब है दिन का हुआ नसीरा थे शेफ़्ता जो 'साक़ी' इक मस्त-ए-नोश लब के मयख़ाने ही के अंदर अपना बना ख़तीरा