मिलती है नज़र उन से तो खो जाते हैं हम और मंज़िल के क़रीब आ के बहकते हैं क़दम और मारे हुए हैं कश्मकश-ए-वहम-ओ-यकीं के टूटे हुए हर बुत से तराशे हैं सनम और ये बात समझते ही नहीं हज़रत-ए-नासेह सिलता है अगर चाक तो खुलता है भरम और तदबीर का हर नक़्श दिल-आवेज़ है लेकिन है कातिब-ए-तक़दीर का अंदाज़-ए-रक़म और जज़्बात पे मोहरें न लगी हैं न लगेंगी होती है ज़बाँ बंद तो चलता है क़लम और शायद ये सिला तर्क-ए-तलब का है 'फ़रीदी' बढ़ती ही गई वुसअ'त-ए-दामान-करम और