मिरा हम-सफ़र कभी वहम था कभी ख़्वाब था कभी क्या रहा मैं अजीब हाल में मस्त था सो मिरा मज़ाक़ बना रहा मिरी मुश्किलों ने अयाँ किया मिरा यार दोस्त कोई नहीं सो क़बील-ए-हिर्स-ओ-हवास में मैं अकेला डट के खड़ा रहा मिरे आशियाँ को जला गईं मिरे ख़ाम सोच की हिद्दतें मिरा सर हया से न उठ सका मैं नदामतों में पड़ा रहा तुझे फ़ख़्र था तिरे हुस्न पर मुझे ज़ो'म था मिरे इश्क़ का तू पड़ी रही किसी सेज पर मैं भी गर्द-ए-राह बना रहा तिरे लम्स लम्स से जी उठा मिरे सर्द जिस्म का रोम रोम तू मिरी गली से चली गई मैं तिरी गली में पड़ा रहा मिरे बाग़-ए-दिल पे ख़िज़ाँ रही मिरी शाख़ शाख़ उजड़ गई मिरे पाँव ख़ून से तर-ब-तर मिरा ज़ख़्म यूँ भी हरा रहा