मिरा सीना है मशरिक़ आफ़्ताब-ए-दाग़-ए-हिज्राँ का तुलू-ए-सुब्ह-ए-महशर चाक है मेरे गरेबाँ का अज़ल से दुश्मनी ताऊस ओ मार आपस में रखते हैं दिल-ए-पुर-दाग़ को क्यूँकर है इश्क़ उस ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ का किसी ख़ुर्शीद-रू को जज़्ब-ए-दिल ने आज खींचा है कि नूर-ए-सुब्ह-ए-सादिक़ है ग़ुबार अपने बयाबाँ का चमकना बर्क़ का लाज़िम पड़ा है अब्र-ए-बाराँ में तसव्वुर चाहिए रोने में उस के रू-ए-ख़ंदाँ का दिया मेरे जनाज़े को जो कांधा उस परी-रू ने गुमाँ है तख़्ता-ए-ताबूत पर तख़्त-ए-सुलैमाँ का किसी से दिल न इस वहशत-सरा में मैं ने अटकाया न उलझा ख़ार से दामन कभी मेरे बयाबाँ का तह-ए-मशीर-ए-क़ातिल किस क़दर बश्शाश था 'नासिख़' कि आलम हर दहान-ए-ज़ख़्म पर है रू-ए-ख़ंदाँ का