मिरा सोज़ भी तरन्नुम मिरी आह भी तराना मिरी ज़िंदगी से सीखे कोई ग़म में मुस्कुराना ये सितम-तराज़ दुनिया है उसी की ठोकरों में ग़म-ए-ज़िंदगी को जिस ने ग़म-ए-ज़िंदगी न जाना न क़फ़स ही मो'तबर है न चमन से मुतमइन दिल वहीं बिजलियाँ भी होंगी जहाँ होगा आशियाना इसे जो बनाए इंसाँ इसे जो समझ ले दुनिया यही ज़िंदगी हक़ीक़त यही ज़िंदगी फ़साना कभी चश्म-ए-बाग़बाँ में कभी बर्क़ की नज़र में कहीं मैं खटक रहा हूँ कहीं मेरा आशियाना