मिरे अज़ीज़ो तुम्हें सुनाऊँ वो हाल अपना जो चल रहा है ख़मोशियों के हसीन झुरमुट में दम हमारा निकल रहा है सभी दलीलें हुईं हैं नाक़िस है ख़ूँ से लत-पत हर एक मंज़र हर एक आ'ला ज़हीन-ओ-दानिश क़दम क़दम पे सँभल रहा है अजब फ़ज़ाओं का रुख़ हुआ है ज़मीं की चादर सरक चुकी है क़दम जहाँ पे मैं रख रहा हूँ वहीं से लावा निकल रहा है ये अहद-ए-हाज़िर की है हक़ीक़त कि आसमाँ की इनायतें हैं ज़मीं पे एड़ी रगड़ रहा हूँ लहूँ का चश्मा उबल रहा है मुजस्समों की ख़मोश आँखों से ख़ूँ टपकने की है अलामत मिरी ग़ज़ल का नफ़ीस लहजा भी सख़्त नौहे में ढल रहा है ये सूखे पेड़ों के ज़र्द पत्ते मिरी तबाही पे हंस रहे हैं उन्हें ख़बर क्या कि रफ़्ता-रफ़्ता समय का सूरज पिघल रहा है हयात के उस मुआ'मले को बयान करना भी है ज़रूरी जभी से 'आलम' समझ में आया तभी से चश्मा बदल रहा है