मिरे बदन की तपिश रूह तक उतारेगा वो आइने में कभी मेरा रूप धारेगा शुऊर-ए-ग़म उसे दोहराएगा हज़ारों बार ये एक रात कई साल तक गुज़ारेगा कभी तो आएगी बाद-ए-सुमूम इस जानिब कभी तो वक़्त मुझे शाख़ से उतारेगा यूँ नंगे सर न चलो कूचा-ए-तसव्वुर में ख़याल लफ़्ज़ का पत्थर उठा के मारेगा ऐ अहल-ए-शहर उठाओ न इतने ऊँचे मकाँ शब-ए-फ़िराक़ किसे रास्ता पुकारेगा हवस का अक्स पड़ेगा अकेले कमरे में कोई न होगा तो आईना आँख मारेगा वो लड़-झगड़ के चला तो गया है दूर कहीं न जाने 'अश्क' मुझे किस तरह बिसारेगा