मिरे ग़म के लिए इस बज़्म में फ़ुर्सत कहाँ पैदा यहाँ तो हो रही है दास्ताँ से दास्ताँ पैदा वही है एक मस्ती सी वहाँ नज़रों में याँ दिल में वही है एक शोरिश ही वहाँ पिन्हाँ यहाँ पैदा तू अपना कारवाँ ले चल न कर ग़म मेरे ज़र्रों का इन्हीं ज़र्रों से हो जाएगा फिर से कारवाँ पैदा मिरी उम्रें सिमट आई हैं उन के एक लम्हे में बड़ी मुद्दत में होती है ये उम्र-ए-जावेदाँ पैदा ज़रा तुम ने नज़र फेरी कि जैसे कुछ न था दिल में ज़रा तुम मुस्कुराए हो गया फिर इक जहाँ पैदा हमारी सख़्त-जानी से हुआ शल हाथ क़ातिल का सर-ए-मक़्तल ही हम ने कर लिया दार-उल-अमाँ पैदा तवक़्क़ो' है कि बदलेगा ज़माना लेकिन ऐ 'मैकश' ज़माना है यही तो हो चुके इंसाँ यहाँ पैदा