मिरे गुमान की हद से निकलने वाला था वो मुझ से पहले ही रस्ता बदलने वाला था तुझे ही जाने की उजलत थी ऐ मुसाफ़िर-ए-मन वगर्ना मैं भी तिरे साथ चलने वाला था जहाँ पे क़ाफ़िला-ए-सालार थक के बैठ गया वहीं से इक नया रस्ता निकलने वाला था नहीं थी मुझ को ज़रूरत किसी सहारे की कि मैं तो आप ही गिर कर सँभलने वाला था मैं लौट आया समुंदर से डर के जब 'फैज़ान' उसी घड़ी वो ख़ज़ाना उगलने वाला था