मिरे हिसार से बाहर बुला रहा है मुझे कोई हसीन सा मंज़र बुला रहा है मुझे जहाँ मुक़ीम था मैं एक अजनबी की तरह वही मकान अब अक्सर बुला रहा है मुझे जो थक के बैठ गया हूँ मैं बीच रस्ते में तो अब वो मील का पत्थर बुला रहा है मुझे हुआ है तिश्ना-लबी से मुआहिदा मेरा अबस ही रोज़ समुंदर बुला रहा है मुझे बुझा दिए हैं उसी ने कई चराग़ मिरे जो एक शम्अ जला कर बुला रहा है मुझे वो जानता है मैं उस के सितम का ख़ूगर हूँ सो बार बार सितमगर बुला रहा है मुझे बुला रहा है तो खुल कर कभी बुलाए वो बस इक इशारे से अक्सर बुला रहा है मुझे दयार-ए-ग़ैर में रहता हूँ मैं मगर 'आलम' हर एक लम्हा मिरा घर बुला रहा है मुझे