मिरे नालों में इतना तो असर है शब-ए-ग़म है मगर कुछ मुख़्तसर है उम्मीदें लाए थे ग़म ले के उठे ये रूदाद-ए-हयात-ए-मुख़्तसर है नहीं है दूर कुछ मंज़िल हमारी ज़माना राह में हाइल मगर है असीरों को रिहाई मिल तो जाए मगर शर्त-ए-शिकस्त-ए-बाल-ओ-पर है वो राहें जिन को सूना कर गए वो उन्हीं पर आज तक मेरी नज़र है जहाँ तुम हो वहाँ हैं लाला ओ गुल जहाँ हम हैं वहाँ बर्क़-ओ-शरर है बदल डाला है जिस ने मेरा आलम किसी की इक निगाह-ए-मुख़्तसर है इलाही ख़ैर मेरे आशियाँ की सबा के साथ फिर मौज-ए-शरर है मह ओ ख़ुर्शीद को समझा है मंज़िल ख़ुदाया किस क़दर आजिज़ बशर है