मिरे सफ़र में ही क्यूँ ये अज़ाब आते हैं जिधर भी जाऊँ उधर ही सराब आते हैं तलाश है मुझे अब तो उन्हीं फ़ज़ाओं की जहाँ ख़िज़ाँ में भी अक्सर गुलाब आते हैं किसी को मिलता नहीं इक चराग़ मीलों तक किसी की बस्ती में सौ आफ़्ताब आते हैं न निकला कीजिए रातों को घर से आप कभी सड़क पे रात में ख़ाना-ख़राब आते हैं खुला मकान है हर एक ज़िंदगी 'आज़र' हवा के साथ दरीचों से ख़्वाब आते हैं