मिरे वजूद में थे दूर तक अँधेरे भी कहीं कहीं पे छुपे थे मगर सवेरे भी निकल पड़े थे तो फिर राह में ठहरते क्या यूँ आस-पास कई पेड़ थे घनेरे भी ये शहर-ए-सब्ज़ है लेकिन बहुत उदास हुए ग़मों की धूप में झुलसे हुए थे डेरे भी हुदूद-ए-शहर से बाहर भी बस्तियाँ फैलीं सिमट के रह गए यूँ जंगलों के घेरे भी समुंदरों के ग़ज़ब को गले लगाए हुए कटे-फटे थे बहुत दूर तक जज़ीरे भी