मिरी आँखों में जब भी तेरे मंज़र बैठ जाते हैं तो इन ख़ाली सफ़ीनों में समुंदर बैठ जाते हैं कहा किस ने ठिकाने पर क़लंदर बैठ जाते हैं ब-ज़ाहिर फिरते रहते हैं पर अंदर बैठ जाते हैं मुझे दुनिया के ता'नों पर कभी ग़ुस्सा नहीं आता नदी की तह में जा के सारे पत्थर बैठ जाते हैं यूँ उठ उठ कर हमारा बोलना दिखलाए महरूमी वो जिन को यार हो जाए मयस्सर बैठ जाते हैं हमीं को शाम ने तन्हा रखा वर्ना ये वो पल हैं कि दिन और रात भी मिलने उफ़ुक़ पर बैठ जाते हैं ऐ आवारा ख़यालो अश्क-बारी में तो रुक जाओ परिंदे भी तो बारिश में सिमट कर बैठ जाते हैं हमारा और उन का रब्त है बस हाज़िरी तक ही वो रस्मन नाम लेते हैं हम उठ कर बैठ जाते हैं बड़े चर्चे हैं 'आलम' आप की ख़ाना-ख़राबी के ख़ुदा का शुक्र है मक़्ते में आ कर बैठ जाते हैं