मिरी अना मिरे दुश्मन को ताज़ियाना है इसी चराग़ से रौशन ग़रीब-ख़ाना है मैं इक तरफ़ हूँ किसी कुंज-ए-कम-नुमाई में और एक सम्त जहाँ-दारी-ए-ज़माना है ये ताएरों की क़तारें किधर को जाती हैं न कोई दाम बिछा है कहीं न दाना है अभी नहीं है मुझे मस्लहत की धूप का ख़ौफ़ अभी तो सर पे बग़ावत का शामियाना है मिरी ग़ज़ल में रजज़ की है घन-गरज तो क्या सुख़न-वरी भी तो कार-ए-सिपाहियाना है