मिरी दीवानगी की हद न पूछो तुम कहाँ तक है ज़मीं पर हूँ मगर मेरी रसाई ला-मकाँ तक है तिरा जल्वा तो ऐसे आम है सारे ज़माने में वहीं तक देख सकता है नज़र जिस की जहाँ तक है किसी को क्या ख़बर एहसास है लेकिन मिरे दिल को कि उस के प्यार की बरसात मेरे दश्त-ए-जाँ तक है ज़रा बर्क़-ए-सितम से पूछ लेता काश कोई ये तिरे क़हर-ओ-ग़ज़ब का सिलसिला आख़िर कहाँ तक है हमीं चुभते हैं क्यूँ काँटों की सूरत आँख में तेरी फ़सादी का निशाना क्यूँ हमारे ही मकाँ तक है तवज्जोह ख़ाक के ज़र्रों की जानिब क्यूँ करें 'अफ़ज़ल' नज़र अपनी मह-ओ-परवीन तक है कहकशाँ तक है