मिरी निगाह में ये रंग-ए-सोज़-ओ-साज़ न हो तिरे करम का अगर सिलसिला दराज़ न हो उमीद चश्म-ए-तग़ाफ़ुल-शिआ'र से कब थी इस इल्तिफ़ात-ए-फ़रावाँ में कोई राज़ न हो हमारे हाल-ए-परेशाँ पे इक नज़र भी नहीं नियाज़-मंद से इतना तू बे-नियाज़ न हो किसी ने तोड़ दिए बरबत-ए-हयात के तार अब और क्या हो अगर आह-ए-जाँ-गुदाज़ न हो नज़र न आए कहीं ये बहार का आलम अगर तसव्वुर-ए-रू-ए-चमन-तराज़ न हो चला तो है मगर ऐ रहरव-ए-रह-ए-इरफ़ाँ हक़ीक़तों की भी मंज़िल कहीं मजाज़ न हो जो उस के हुस्न की परछाइयाँ न आएँ नज़र तो रूह गर्म-ए-तवाफ़-ए-हरीम-ए-नाज़ न हो है एक फ़ित्ना-ए-बेदार हुस्न-ए-ख़्वाबीदा सँभल कि घात में वो चश्म-ए-नीम-बाज़ न हो शब-ए-फ़िराक़ न काटे कटे कभी 'मुज़्तर' ख़याल-ए-दोस्त अगर ग़म में दिल-नवाज़ न हो