मिसाल-ए-ख़ाक कहीं पर बिखर के देखते हैं क़रार मर के मिलेगा तो मर के देखते हैं सुना है ख़्वाब मुकम्मल कभी नहीं होते सुना है इश्क़ ख़ता है सो कर के देखते हैं किसी की आँख में ढल जाता है हमारा अक्स जब आईने में कभी बन सँवर के देखते हैं हमारे इश्क़ की मीरास है बस एक ही ख़्वाब तो आओ हम उसे ताबीर कर के देखते हैं सिवाए ख़ाक के कुछ भी नज़र नहीं आता ज़मीं पे जब भी सितारे उतर के देखते हैं ये हुक्म है कि ज़मीन-ए-'फ़राज़' में लिक्खें सो इस ज़मीन में हम पाँव धर के देखते हैं