मिसाल-ए-शबनम गुल आज़मा रही है मुझे तिरे ख़याल की ख़ुशबू बुला रही है मुझे निगह में सम्त गिरह में भी ज़र रहा लेकिन मिरी मलाल-निगाही मिटा रही है मुझे तुझे भुलाऊँ कि मैं ख़ुद को भूल जाऊँ यहाँ ख़याल-ओ-ख़्वाब की दुनिया सता रही है मुझे मैं भूक प्यास से बेहाल हो के सोचता हूँ ख़ुशी का मुज़्दा क़ज़ा क्यों सुना रही है मुझे तमाम रामिश-ओ-रंग उस के साथ हैं 'मंज़र' तो इस जहान से रग़बत ही क्या रही है मुझे