मिसाल-ए-शोला-ओ-शबनम रहा है आँखों में वो एक शख़्स जो कम कम रहा है आँखों में कभी ज़ियादा कभी कम रहा है आँखों में लहू का सिलसिला पैहम रहा है आँखों में न जाने कौन से आलम में उस को देखा था तमाम उम्र वो आलम रहा है आँखों में तिरी जुदाई में तारे बुझे हैं पलकों पर निकलते चाँद का मातम रहा है आँखों में अजब बनाव है कुछ उस की चश्म-ए-कम-गो का कि सैल-ए-आह कोई थम रहा है आँखों में वो छुप रहा है ख़ुद अपनी पनाह-ए-मिज़्गाँ में बदन तमाम मुजस्सम रहा है आँखों में अज़ल से ता-ब-अबद कोशिश-ए-जवाब है 'शाज़' वो इक सवाल जो मुबहम रहा है आँखों में