मिस्ल-ए-नावक जो निगाहों से इशारा निकला दिल धड़कता हुआ पहलू से हमारा निकला ‘आरिज़-ए-यार पे ज़ुल्फ़ों के बिखर जाने से चाँद डूबा हुआ बदली से दुबारा निकला हासिल-ए-सहरा-नवर्दी है हमारी वहशत ख़ाक छानी तो मुक़द्दर का सितारा निकला बे-तुके जाम पिलाए जो मुझे साक़ी ने ज़ब्त का बाँध खुला नाम तुम्हारा निकला तय-शुदा साल मयस्सर थी जवानी हम को कुछ बरस ठीक सो बाक़ी में ख़सारा निकला हम भी सूखे हुए तालाब का हिस्सा निकले वो भी प्यासा किसी दरिया का किनारा निकला अब तो अल्लाह से शिकवा भी नहीं कर सकते दिल भी कमबख़्त तरफ़-दार तुम्हारा निकला लाख बेहतर था कि सीने से लगाते पत्थर फूल के भेस में आतिश का शरारा निकला 'महवर'-ए-सब्र पे इक सब्र की आयत पढ़ कर खींच कर जिस्म से जाँ जान से प्यारा निकला