मिसरे पे उन के मिस्रा-ए-क़द का गुमाँ हुआ इक तबक़ा बैत का तबक़-ए-आसमाँ हुआ चुनता है अपनी जुब्बे पर अफ़शान-ओ-मेहर-वश गुर्दों को शौक़-ए-परवरिश-ए-कहकशाँ हुआ खींचा जो दुश्मनी से गरेबाँ को दोस्त ने दामान-ए-इश्तियाक़ मिरा धज्जियाँ हुआ घूरेंगे क्या गुलों को गुलिस्तान-ए-दहर में रुख़्सत हुई बहार नुज़ूल-ए-ख़िज़ाँ हुआ दिखलाएँगे बहार कलाम-ए-फ़सीह की गर दहर में 'शगुफ़्ता' कोई क़दर-दाँ हुआ