मिटा के अंजुमन-ए-आरज़ू सदा दी है चले भी आओ कि हर रौशनी बुझा दी है गर इत्तिफ़ाक़ से पाया है क़तरा-ए-शबनम समुंदरों को मिरी प्यास ने दुआ दी है हुजूम-ए-राह-ए-रवाँ रौंद कर गुज़रता है बिसात दिल की कहाँ हम ने ये बिछा दी है दिलों का ख़ूँ करो सालिम रखो गरेबाँ को जुनूँ की रस्म ज़माना हुआ उठा दी है न मुड़ के देखेगी दुनिया मरो न घुट घुट के ये हादसों पे ही बस चौंकने की आदी है किसी की जान का ज़ामिन नहीं यहाँ कोई अमीन-ए-शहर की जानिब से ये मुनादी है कहो जो कहना है क्या पास-ए-दर्द 'क़ैसी' का कि उस ने दिल से वो बुनियाद ही मिटा दी है