मिट्टी के लुत्फ़-ओ-कैफ़-ओ-असर से निकलते हम मौसम था अब्र-ओ-बाद का घर से निकलते हम फिर मुंतक़िल हुई है बदन से लहू की आग इस सेहर-गाह-सम्त-ओ-सफ़र से निकलते हम नाम-ओ-नसब की धुँद में खोए हुए हैं सब महमेज़ करते और भँवर से निकलते हम तेरे बग़ैर सुब्ह-ओ-मसा का हवाला क्या इस कार-गाह शाम-ओ-सहर से निकलते हम तू मुंतख़ब है तुझ से है ये रंग-ओ-बू तमाम हाँ मुंतशिर हैं ऐब-ओ-हुनर से निकलते हम कैसा ख़ला है सीना-ए-इंसाँ में ख़ेमा-ज़न इस मावरा-ए-नक़्द-ओ-नज़र से निकलते हम जौलाँ-गह-ए-नशात भी थी ग़म भी थे 'ख़ुमार' दीवार-ओ-दर से शाख़-ओ-शजर से निकलते हम