मिट्टी था मैं ख़मीर तिरे नाज़ से उठा फिर हफ़्त-आसमाँ मिरी पर्वाज़ से उठा इंसान हो किसी भी सदी का कहीं का हो ये जब उठा ज़मीर की आवाज़ से उठा सुब्ह-ए-चमन में एक यही आफ़्ताब था इस आदमी की लाश को एज़ाज़ से उठा सौ करतबों से लिख्खा गया एक एक लफ़्ज़ लेकिन ये जब उठा किसी एजाज़ से उठा ऐ शहसवार-ए-हुस्न ये दिल है ये मेरा दिल ये तेरी सर-ज़मीं है क़दम नाज़ से उठा मैं पूछ लूँ कि क्या है मिरा जब्र ओ इख़्तियार या-रब ये मसअला कभी आग़ाज़ से उठा वो अब्र शबनमी था कि नहला गया वजूद मैं ख़्वाब देखता हुआ अल्फ़ाज़ से उठा शाएर की आँख का वो सितारा हुआ 'अलीम' क़ामत में जो क़यामती अंदाज़ से उठा