मोड़ मोड़ घबराया गाम गाम दहला मैं जाने किन ख़राबों के रास्तों पे निकला मैं सत्ह-ए-आब कह पाए क्या तहों के अफ़्साने सामे-ए-लब-ए-साहिल बहर से भी गहरा मैं और कुछ तक़ाज़े का सिलसिला चले यारो पल में कैसे मन जाऊँ मुद्दतों का रूठा मैं वो कि है मिरा अपना हर्फ़-ए-मुद्दआ' उस को ग़ैर के हवाले से किस तरह समझता मैं जाने जज़्ब हो जाऊँ कब फ़ज़ा के आँचल में साअ'तों की आँखों से अश्क बन के ढलका मैं एक रोज़ तो गिरतीं फ़ासलों की दीवारें एक रोज़ तो अपने साथ साथ चलता मैं कौन है मिरा क़ातिल किस का नाम लूँ 'आली' अपनी ही वफ़ाओं के पानियों में डूबा मैं