मोहब्बत का फ़साना हम से दोहराया नहीं जाता बस अब हम से फ़रेब-ए-आरज़ू खाया नहीं जाता यहाँ तक तो मुझे दस्त-ए-करम पर नाज़ है उन के अगर अब हाथ फैलाऊँ तो फैलाया नहीं जाता तमाशा देखने वाले तमाशा बन के रह जाएँ ब-क़द्र-ए-दर्द तुम से दिल को तड़पाया नहीं जाता ये आलम है क़फ़स का दर खुला है सेहन-ए-गुलशन में मगर सय्याद को अब छोड़ कर जाया नहीं जाता मुझे देखो कि ग़ैरों को भी सीने से लगाता हूँ मगर तुम से तो अपनों को भी अपनाया नहीं जाता जो आँखें देख लेती हैं ख़िज़ाँ का दौर फिर उन से बहारों का फ़रेब-ए-रंग-ओ-बू खाया नहीं जाता मैं उन को बे-रुख़ी का किस लिए इल्ज़ाम दूँ 'जाफ़र' अँधेरे में तो अपना दो-क़दम साया नहीं जाता