मोहब्बत के सफ़र में बे-रुख़ी से चोट लगती है जिसे हम प्यार करते हैं उसी से चोट लगती है ज़रूरत से ज़ियादा गुफ़्तुगू अच्छी नहीं लगती ज़रूरत से ज़ियादा ख़ामुशी से चोट लगती है मुझे बे-ख़्वाब रातों से कोई शिकवा नहीं फिर भी अंधेरा डसता है और चाँदनी से चोट लगती है शिकस्ता और सूनी खिड़कियाँ आवाज़े कसती हैं गुज़रता हूँ मैं जब उस की गली से चोट लगती है तुम्हारे साथ भी ऐसा हो तो हैरान मत होना किसी से मिलती है राहत किसी से चोट लगती है यहाँ सब अपनी फ़ितरत के सबब पहचाने जाते हैं शिकारी ज़ेहनियत को सादगी से चोट लगती है कभी हैरान रह जाता हूँ ज़ालिम की जसारत पर कभी 'मासूम' अपनी बुज़दिली से चोट लगती है