मोहब्बत की बुलंदी से कभी उतरा नहीं जाता तिरा दर छोड़ के मुझ से कहीं जाया नहीं जाता मैं अपनी दास्तान-ए-ग़म सुना देता तुझे लेकिन तिरा उतरा हुआ चेहरा मुझे देखा नहीं जाता बुज़ुर्गों की दुआएँ भी सफ़र में साथ होती हैं बिगाड़ेगा कोई क्या मैं कहीं तन्हा नहीं जाता ग़रीबों को हिक़ारत की नज़र से देखते हैं जो कभी ऐसे अमीरों के यहाँ जाया नहीं जाता ग़मों की धूप में कुछ इस तरह बदला मिरा चेहरा कि मेरे दोस्तों से भी ये पहचाना नहीं जाता थका हूँ राह-ए-मंज़िल का मुझे सोना ज़रूरी है मगर कुछ बात ही ऐसी है जो सोया नहीं जाता यही सौदा-गरान-ए-फ़न से कहना है 'ज़फ़र' मुझ को ग़ज़ल को चंद सिक्कों के एवज़ बेचा नहीं जाता