मोहब्बत की हवा-ए-दिल-रुबा से झूट बोलेगी हसीं काज़िब है वो अहल-ए-वफ़ा से झूट बोलेगी वो इक इक झूट झुटलाने को सौ सौ झूट बोलेगी वो ख़ुद से झूट बोलेगी ख़ुदा से झूट बोलेगी मिरे मा'सूम सच को कचहरी में ला खड़ा कर के कोई देखे कि वो किस किस अदा से झूट बोलेगी उसी के झूट से गिर्दाब में उस का सफ़ीना है मगर उल्टा वो अपने ना-ख़ुदा से झूट बोलेगी ये माना सुब्ह-ए-सादिक़ को करे वो झूट से तौबा उसी पल वो मगर बाद-ए-सबा से झूट बोलेगी अजब क्या जो उसे हो जाए उम्र-ए-जावेदाँ हासिल जो वो शीरीं-दहन अपनी क़ज़ा से झूट बोलेगी