मोहब्बत में आराम सब चाहते हैं मगर हज़रत-ए-'दाग़' कब चाहते हैं ख़ता क्या है उन की जो उस बुत को चाहा ख़ुदा चाहता है तो सब चाहते हैं वही उन का मतलूब ओ महबूब ठहरा बजा है जो उस की तलब चाहते हैं मगर आलम-ए-यास में तंग आ कर ये सामान-ए-आफ़त अजब चाहते हैं अजल की दुआ हर घड़ी माँगते हैं ग़म-ओ-दर्द-ओ-रंज-ओ-तअब चाहते हैं न तफ़रीह-ए-आसाइश-ए-दिल की ख़्वाहिश न सामान-ए-ऐश-ओ-तरब चाहते हैं क़यामत बपा हो नुज़ूल-ए-बला हो यही आज-कल रोज़ ओ शब चाहते हैं न माशूक़-ए-फ़रख़ार से उन को मतलब न ये जाम-ए-बिन्तुल-इनब चाहते हैं न जन्नत की हसरत न हूरों की पर्वा न कोई ख़ुशी का सबब चाहते हैं निराली तमन्ना है अहल-ए-करम से सितम चाहते हैं ग़ज़ब चाहते हैं न हो कोई आगाह राज़-ए-निहाँ से ख़मोशी को ये मोहर-ए-लब चाहते हैं ख़ुदा उन की चाहत से महफ़ूज़ रक्खे ये आज़ार भी मुंतख़ब चाहते हैं ग़म-ए-इश्क़ में 'दाग़' मजबूर हो कर कभी जो न चाहा वो अब चाहते हैं