मोहब्बत में तिरी जब मुझ को आलम ने मलामत की दिल-ओ-जाँ ने तब आपस में मुबारक और सलामत की क़यामत जिस को कहते हैं ये इक मुद्दत का था मिस्रा ये मेरे मिस्रा-ए-मौज़ूँ ने उस क़द की क़यामत की किया क़ुमरी ने नाला और खींची आह बुलबुल ने चली कुछ बात जब गुलशन में मेरे सर्व-क़ामत की जब अपना काम तेरे इश्क़ में तदबीर से गुज़रा चली आँखों से मेरी सैल तब अश्क-ए-नदामत की सुख़न का ये बुज़ुर्गों की ततब्बो बस-कि करता है निकलती है 'हसन' की बात में इक बू क़दामत की